Tuesday 27 August 2019

वैधव्य गाथा




वैद्यव्य गाथा

विधवा...शब्द सुनती तो थी, पर कभी उसे महसूस ना किया था,
पर जब खुद एक विधवा बनी तो समझा कितनी अन्य औरते हैं जिन्होंने यह जहर पिया था।
हां जहर ही हैं यह...धीरे से गले उतरता है, और पल पल मारता..
मेरी इस अवस्था में, मैंने कई बार श्री राजा raam मोहन रॉय को कोसा,
"ठीक ही थी ना वह सती की प्रथा! आप क्यूं जीते जी हमें मरवाए?"
अकेलापन तो मारता ही, पर उससे भी और ज्यादा आघात पहुंचाता अपनों के व्यवहार, और समाज के तीखे, कड़े वार..
तुम यह ना करो, तुम ऐसे ना रहें, तुम उससे बात ना किया करो,
उस विधवा की जिंदगी के बन जाते ठेकेदार अनेक,
ज्यादातर मौकापरस्त, कुछ ही नेक....
जहा दो हंस बिछड़ जाते, वहीं कई चील मंडराते,
किस किस से बचे वह, छोटे बड़े सभी सताते,
उसे डराते, धमकाते,
यह भी न चले तो क्यारीटर एसासिनाशन करवाते,
क्यूं? किसलिए? क्यूंकि वह विधवा अगर तुम्हारी ना बन पाई,
तो मजाल हैं वह अपने तरीके से भी जी पाए!
और जब समाज के राक्षसों और अजब नीतियों से  बचने के लिए,
वह फिर एक बार जब ब्याहे,
तब भी समाज को उंगलियां उठती हैं,
यह केहेती की यह औरत तो बिना पुरुष के रह ही ना पाए!
लालत हैं ऐसे समाज पर, जो केवल कुछ गिने चुने मापदंड लगाए,
और एक विधवा की मजबूरी को अपने चाव का विषय बनाए!
वैसे तो पुराणा लिख सकती हूं मैं एक विधवा की जिंदगी पर,
पर बस यही कहूंगी, "आज जिस विधवा पर तुम उंगली उठा रहें हो, ऐसी ही कल तुम्हारी बेटी भी हो सकती हैं!
शायद इतना श्राप काफी है, चीलों को भगाने के लिए!

स्वरूपा

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